Wednesday, June 12, 2013

Ankahe rishton ki dor...

अनकहे रिश्तों की डोर 


आज सुबह से  बेचैन सी थी वो।न उठते बनता,  न बैठते। चेहरे पर कुछ ऐसे भाव मानो किसी छोटे बच्चे से उसका मनपसंद खिलौना छीन  लिया गया हो। लगातार एक घंटे  से बरामदे के चक्कर लगा रही थी। शायद ही उसे सुध थी कि माँ किचन के झरोखे से उसे देख रही थी और उतना ही परेशान लग रहीं थी जितना कि वो।
"कविता"
माँ की आवाज़ सुन वो चौंक पड़ी। बिना कुछ कहे माँ को ताकने लगी।
"बता न मुझे। प्रॉब्लम क्या है? तुझे  इस तरह देख के मुझे घबराहट हो रही है।" फिर कुछ रुक कर, झेंप कर बोलीं, "नौकरी  तो सलामत  है न तेरी?"
 सुनते ही कविता ने माँ को घूरा। माँ बरबस  ही घबरा गईं, मानो  किसी के घर चोरी कर के आयीं हो। उन्हें डर था कहीं कविता इसका ग़लत अर्थ न निकाल ले।
"देख बेटा, वो तो इतने दिनों से इस तरह की बातें चल रहीं हैं, इसलिए मन में सवाल उठा। अच्छा तुझे बुरा लगा हो तो आइ ऍम सॉरी।" कहकर माँ किचन की तरफ चली गयीं।

माँ अपने महिला मंडल से सारे अपडेट्स लेती रहती थीं। किसके बच्चे ने क्या कहा, किसकी नौकरी लगी, मिसेज़ खन्ना की लन्दन ट्रिप कैंसिल क्यों हुई, मिसेज़ शर्मा की बेटी परीक्षा में फेल हुई और उसके पीछे अनेक कारण, वगैरह , वगैरह ।
पर हाल ही में 'गॉसिप' का विषय इधर उधर की चटपटी ख़बरों से हटकर गंभीर होता दिखाई दे रहा था। जबसे दिनेश की नौकरी गयी थी। दिनेश - मिसेज़ पाटिल का इकलौता  बेटा, किसी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता था। मिसेज़ पाटिल तारीफ किये नहीं थकती थी उसकी। दिनेश था भी काफी होनहार। अपने बलबूते पर लन्दन के जाने माने कॉलेज से एम. बी. ए. कर के आया था।
"क्या दिनेश! नौकरी चली गयी?"
"हाँ, देखो तो क्या हाल हो गया है। कर रहे हैं इकोनोमिक डिप्रेशन चल रहा है। काफी नुकसान हुआ है बड़ी बड़ी कंपनियों को, इसलिए कई लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है।"
अपने बच्चों के जमे जमाये करियर पर यूँ पानी फिरता देखने के ख़याल से मम्मियों की चिंता बढ़ रही थी। कई दिनों से 'डिस्कशन टॉपिक' में कोई परिवर्तन नहीं आया था। उसके ऊपर कुछ उत्साही महिलाएं नौकरी से हाथ धोने वाले लोगों की लिस्ट भी अपडेट करती रहती थीं।

पर इन सभी समस्याओं का तो जैसे कविता पर कोई असर ही नहीं था। नौकरी,घर,शॉपिंग, सहेलियों से परे उसका मन लगातार एक दिन पहले आये फ़ोन कॉल के आगे पीछे घूमा जा रहा था। उसकी बेस्ट फ्रेंड रीमा का कॉल था। रीमा और कविता साथ ही कॉलेज में पढ़े थे और लगभग एक साथ ही नौकरी भी लगी थी। नौकरी लगने की ख़ुशी से ज़्यादा दोनों को ये मलाल था की एक ही कंपनी में नौकरी नहीं लगी।
"अब बस भी करों तुम दोनों।" माँ ने थोडा फटकारते हुए कहा था। फिर दोनों के मुंह में एक एक लड्डू ठूसते हुए बोलीं, "कुछ समय में शादी हो जाएगी तुम्हारी। दोनों एक दूसरे के ससुराल में भी डेरा जमा लोगी क्या?"
"और क्या आंटी। शादी तो इसी शर्त पर होगी कि  कविता के मेरे घर आने जाने पर कोई रोक टोक न हो।" रीमा चहक कर बोली।
"या फिर एक ही घर में रिश्ते ढूंढ लेंगे। देवरानी-जेठानी। क्या कहती है रीमा?"
और दोनों खिलखिलाते हुए हंस पड़ी थीं। माँ भी मुस्कुराए बिना न रह सकीं।

समय पंख लगाकर उड़ता गया। कितना कुछ  बदल गया था तीन सालों में। अब तो शायद ही कविता उस बेफिक्री से हंसती हो।  हँसना  तो दूर, अब तो उसने लोगों से मिलना जुलना भी बंद कर दिया था। सिर्फ रीमा ही थी जिस से आज भी कविता अपनी बातें, सुख-दुःख  शेयर करती थी।
कविता का ये बदला स्वरुप माँ को खाए जा रहा था। एक समय में कुछ पल भी चुप न रह सकने वाली कविता अब घंटों अकेले बिता देती। न उत्साह, न हँसी और न ही जीवन में आगे बढ़ने की चाह। शादी की बात छेड़ते ही वो बौखला सी जाती जैसे कोई डर उसे हर पल जकड़े रखता था।

पर आज दोपहर रीमा से हुई बातचीत ने तो उसे और भी एकाकी बना दिया था। दिमाग कौंध सा गया था उसका। अचानक मन में उथल-पुथल मच गयी थी और कविता फिर एक बार कॉलेज के उन दिनों में वापस खिंचने लगी थी जिनसे बड़ी मुश्किल से उसने पीछा छुड़ाया था। कॉलेज कैंटीन का वो शोर, गरम चाय और मैगी का दौर, क्लास ख़त्म होने के बाद हंसी ठहाके, परीक्षा के दौरान नोट्स एक्सचेंज, लड़के लड़कियों की नोंक-झोंक, वैलेंटाइन डे का बेसब्री से इंतज़ार ...
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'वैलेंटाइन डे' - अचानक कविता के खयालों की गाडी यहीं रुक जाती।विनोद का वो खिलखिलाता चेहरा उसकी आँखों के सामने तैरने लगता। किसी टाइम बेस्ट फ्रेंड्स हुआ करते थे विनोद, कविता और रीमा। साथ क्लास जाना, कॉलेज बंक करना, कैंटीन में घंटों समय बिताना, लड़ाई-झगडे, रूठना-मनाना। दो साल बस यही सिलसिला चलता रहा। फाइनल ईयर तक पहुँचते-पहुँचते कविता को एहसास हो चला था की वो विनोद को काफी पसंद करने लगी थी। रीमा से अपनी फीलिंग्स शेयर करने की देर थी कि मैडम रीमा ने अपने ज्ञान चक्षुओं द्वारा देख ये भी एलान कर दिया कि विनोद भी कविता को उतना ही पसंद करता है।
"तुझे वाकई में ऐसा लगता है?" कविता ने अपनी ख़ुशी छुपाते हुए पुछा।
"प्लीज! बन मत। तूने देखा नहीं विनोद कैसे टाइम निकालता रहता है तुझसे मिलने, बाते करने के लिए?" रीमा ने कहा।
"हाँ पर… वो हम दोनों से ही मिलता है ना।"
"तो तू की चाहती है, पहाड़ी पर चढ़कर आई लव यू चीखे? फर्स्ट फेज ऑफ़ लव में ऐसा ही होता है। हीरोइन की किसी सहेली की मदद से की मीटिंग फिक्स की जाती है।" रीमा अपने एक्सपर्ट कमेंट्स देते हुए बोली। फिर हल्की सी फटकार लगाई और कहा, "क्या फायदा तेरा इतनी हिंदी फिल्मे देखने का?"
रीमा की इस तरह बार-बार कही बातों से कविता की भावनाएं सकारात्मक मोड़ लेने लगीं थीं। बिना कोई आहट, शोर, सपने सजते गए और कविता का मन पूरी तरह से इन्ही खयालों में बस गया। उसने ये तक तय कर लिया कि वो पोस्ट ग्रेजुएशन का फॉर्म नहीं भरेगी और ग्रेजुएशन पूरा होते ही विनोद के सामने शादी  का प्रस्ताव रख देगी।
हालाँकि रीमा ने उसे काफी समझाया कि वो शादी के चक्कर में पढाई न छोड़े। और फिर विनोद ऐसा लड़का है भी नहीं जो इस पक्ष में होगा। आखिर शादी के बाद भी पढाई जारी रखी  जा सकती है।

 "नहीं यार।" कविता ने कुछ रूखेपन से कहा। "मैं हमेशा से ही फॅमिली को टाइम देने के पक्ष में रहीं हूँ। बस ग्रेजुएशन के बाद एक नौकरी मिल जाए, फिर अपनी ज़िन्दगी की गाडी चल पड़ेगी।" उसके सपने उड़ान भरने लगे थे।
विनोद के खयालों में दिन से रात और रात से दिन होने का  उसे पता ही ना चलता। कविता जैसी गंभीर और सुलझी लड़की का ये बदला स्वरुप देख रीमा कभी-कभी परेशान हो जाती, पर फिर  उसे विनोद की समझदारी पर पूरा भरोसा था। वो किसी को धोखा देने वाला इंसान था ही नहीं।

फाइनल परीक्षा में अभी तीन महीने बाकी थे। इसी बीच कैंपस प्लेसमेंट के दौरान कविता की अच्छी कंपनी में नौकरी गयी। बीते सालों में कविता ने कभी परीक्षाओं का इतनी बेसब्री से इंतज़ार नहीं किया था। पर पढाई से ज्यादा समय तो इस प्लानिंग में चला जाता कि विनोद  को वो प्रपोज़ कैसे करेगी।
'डायरेक्ट प्रपोजल सही नहीं रहेगा शायद। कुछ हिन्ट दूं? पर आर वो समझा नहीं तो?' यही सब सोचते-सोचते कविता घंटों बिता देती। माँ ने कई बार टोका भी था।
 "पिछले चार घंटे से तू एक ही पेज पर अटकी है कविता। ध्यान कहाँ है तेरा?" माँ की बातों से कविता सकपका कर बोली थी, "क्या माँ? रिवाइज़ कर रही हूँ। वो भी दूसरी बार।" कविता अभी माँ से कुछ कहना नहीं चाहती थी। 'बस एक बार विनोद भी अपने दिल की बात  कह दे फिर घर में  सबको बता देगी', वो सोचती।
पर रीमा के एक आइडिये से प्लानिंग प्री-पोन हो गयी।

"अरे, तू इतना वेट क्यों कर रही है? अगले ही हफ्ते तो वैलेंटाइन डे है यार। बस बता  दे विनोद को।' रीमा ने सुझाया।
"पागल है क्या? इतनी जल्दी? मैं ... मैं तैयार नहीं हूँ अभी।" कविता घबरा कर बोली।
 "तुझे क्या माउंट एवेरेस्ट चढ़ना है, जो तैयारी चाहिए? बस प्रपोज़ करना है तो कर दे।"
 "मैं नहीं कर पाऊंगी। आई थिन्क मुझे थोडा और इंतज़ार करना चाहिए।"
 "तो फिर कर इंतज़ार। और अगले हफ्ते किसी और ने  विनोद को प्रपोज़ कर दिया तो देखती रहना।" रीमा चिढ़ कर बोली।

क्या? कोई और! ये तो कविता ने सोचा ही नहीं था। ऑफ़ कोर्स विनोद अच्छा खासा दिखता था, टैलेंटेड था। फिर अगर वो उसे पसंद कर सकती है तो और लडकियां क्यों नहीं?
तो इस तरह प्लानिंग चेंज हुई और वैलेंटाइन डे की तैयारियां जोर-शोर से चलने लगीं।

14 फ़रवरी की वो सुबह अपने साथ कुछ अलग ही ख़ुशबू लेकर आयी थी। कविता खुश थी और नर्वस भी। सुबह आठ बजे से पहले कभी ना उठने वाली कविता उस दिन छ: बजे से ही घड़ी ताकने लगी थी। हलके गुलाबी रंग के सलवार कमीज़ में वो काफी खूबसूरत लग रही थी। वैसे तो उसने इंडियन ट्रेडिशनल ड्रेसेज केवल शादी-ब्याह टाइप के फंक्शन्स के लिए ही संभाल कर रखे थे, पर ये सोचकर कि विनोद को वो इस रूप में ज़्यादा पसंद आयेगी, उसने अपना फेवरिट कलर का ड्रेस पहना पहना था। हल्का मेक-अप लगा तो वो और भी सुन्दर दिख रही थी।
लगभग साढ़े सात बजे तक रीमा भी कविता के घर पहुँच चुकी थी। एक अच्छी सहेली होने के नाते, कविता के मॉरल सपोर्ट के लिए उसे अपनी उपस्थिति काफी महत्त्वपूर्ण लग रही थी। माँ के पूछने पर दोनों ने एक स्वर में आठ बजे की एक्स्ट्रा क्लास का बहाना बनाया और तुरंत घर से निकल पड़ीं।
"रीमा, मैं सही तो कर रही हूँ  न? कहीं विनोद बुरा न मान जाये। या उसे इनसल्टिंग फ़ील हुआ तो?" कॉलेज की दहलीज़ पर कदम रखते की कविता बोली।
"इनसल्टिंग? वो तो बल्कि खुश होगा कि किसी  ने उस में इंटरेस्ट दिखाया है। कभी-कभी ही ऐसी उल्टी गंगा बहती है। देखना फ़ौरन हाँ कर देगा, शर्त लगा ले तू।" रीमा चुटकी लेकर बोली।
कविता धीरे से मुस्कुरा दी और कॉलेज कैंटीन की तरफ बढ़ गयी। रीमा भी पीछे पीछे चल पड़ी। काफी समय से सुबह की शुरुआत रीमा, कविता और विनोद कैंटीन में चाय के साथ करते और फिर क्लास जाते थे।

उस दिन कैंटीन में बाकी दिनों के मुकाबले कुछ ज्यादा भीड़ थी, जो कि स्वाभाविक था। आखिर रोज़ रोज़ थोड़े ही ना आता है ये वैलेंटाइन डे! अपनी तरह और कई प्यार में डूबे लोगों को देखकर कविता की कुछ हिम्मत बढ़ी। आज का दिन उसे और भी खूबसूरत लगने लगा।
कोई ख़ाली सीट ढूँढने के लिए उसने तेज़ी से पूरे कैंटीन में अपनी नज़र दौडाई। अचानक एक जाना पहचाना चेहरा ...
कैंटीन के एक कोने की सीट पर  विनोद बैठा था जिसे देखते ही कविता की वो मंद मंद  मुस्कराहट सूखे फूल की तरह ज़मीन पर बिखर गयी। विनोद प्रिया  के साथ था। प्रिया इन लोगों के साथ एक ही क्लास में पढ़ती थी।
दिल अचानक से बैठ गया था कविता का। तरह तरह के ख़याल दिमाग में जंग लड़ने लगे।
"शायद कैज़्युली ही मिलने आये होंगे।" दिल का  एक कोन कहता पर तभी दिमाग तर्क देता, "आज के दिन? पहले तो कभी साथ में नहीं देखा इन्हें।"
कविता चाह कर भी वापस मुड़ नहीं पा रही थी। पैर ज़मीन पर जम  से गए थे। तब तक रीमा भी कैंटीन पहुँच गयी। विनोद और प्रिया को देखकर चौंकी और फिर  कविता को देखा तो सन्न रह गयी। दर्द कविता के चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रहा था।
इससे पहले कि रीमा कविता को कैंटीन से वापस ले जा पाती, अचानक विनोद की आवाज़ आई ...
"कविता! रीमा!"देखा तो विनोद दोनों को इशारे से बुला रहा था।

कुछ पल रूककर कविता ने खुद को संभाला और फिर एक प्रोफेशनल की तरह अपनी भावनाओं को समेटते हुए, चेहरे पर एक झूठी मुस्कान बिखेरे, वो भारी क़दमों से विनोद और प्रिया की तरह बढ़ गयी।

"हाय!" विनोद चहक कर बोला। "कहाँ जा रहीं थी दोनों मैडम मुझे मिले बिना?"
कविता और रीमा ने एक दूसरे को देखा और बिना कुछ कहे एक रूखी सी मुस्कराहट दे दी।
"अच्छा बाबा सॉरी।" विनोद ने अपने कान पकडे। फिर प्रिया की तरफ देख कर बोला, "प्रिया, इनसे मिलो - रीमा  और कविता।  मेरी बेस्ट फ्रेंड्स या फिर शायद उससे भी कहीं ज़्यादा।"
फॉर्मल इंट्रोडक्शन तो हो गया पर दोनों के चेहरों पर जो सवाल तैर रहा था, उसे समझने में विनोद को देर नहीं लगी।
"मुझे पता है कि तुम दोनों मुझसे बहुत-बहुत नाराज़ हो। अरे साफ़ पता चल रहा है तुम दोनों का चेहरा देखकर। आख़िर सुबह की चाय  मैंने तुम दोनों के अलावा किसी से शेयर की है भला?" विनोद बच्चों की तरह हंसने लगा। फिर अचानक सीरियस होकर, चेहरे पर गहरे भाव लिए बोला, "पर सच कहूं फ्रेंड्स, प्रिया को मैं कब पसंद करने लगा, कुछ पता ही नहीं चला। समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे अपने दिल की बात कहूं। पहले सोचा तुम्हें बता कर तुमसे हेल्प लेता हूँ, पर फिर दिल से आवाज़ आई 'अगर प्यार करने की हिम्मत की है, तो बोलना भी खुद ही पड़ेगा।' तो बस कह दिया। और देखो ना मैं कितना लकी हूँ, जिसको मैंने पसंद किया वो भी मुझे लाइक करती है।"
बस इतना सुनना था की कविता की रही-सही उम्मीद भी चूर हो गयी। मन हुआ की विनोद का हाथ पकड़ ले और सब कुछ बता दे। कह दे की वो विनोद को कितना पसंद करती है, कबसे पसंद करती है। शायद… शायद विनोद मज़ाक कर रहा हो।
पर कविता चुप रही। बस एकटक विनोद की बातें सुनती रही।

अचानक विनोद कविता का हाथ पकड़ते हुए बोला, "अरे इतना एटीट्युड! सॉरी यार ग़लती हो गयी तुम्हें नहीं बोल पाया। पर सच बताऊँ टाइम ही नहीं मिला। कल ही प्रिया  को फ़ोन किया और मिलने के लिए बुलाया। सोचा तुम दोनों से आज मिलने के बाद ही ये बात शेयर करूंगा।" फिर नटखट बच्चे की तरह बोला, "और अब तो पार्टी भी दूंगा। प्यार कोई रोज़ रोज़ थोड़े ही होता है। अब तो माफ़ कर दो, प्लीज ..."

रीमा की कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। कभी वो विनोद को देखे तो कभी कविता को। तभी कविता बोल पड़ी, "विनोद के बच्चे, अब तो तेरी खैर नहीं। सिर्फ माफ़ी से काम नहीं चलेगा। एक साल तक ट्रीट देनी पड़ेगी हमें।"
ये सुनकर सभी खिलखिलाकर हंस पड़े।
रीमा ने डरते हुए कविता का हाथ पकड़ा। वो यह तो जानती थी कि  कविता झूठी हंसी हंस रही है, पर यह नहीं समझ पायी की ये झूठी हंसी भी कविता की आखिरी हंसी होगी।

वो वैलेंटाइन डे कविता की ज़िन्दगी में उत्पात मच कर चला गया। उस दिन के बाद कुछ भी पहले जैसा ना रहा।
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कविता का हँसना, बोलना, यहाँ तक कि रीमा के साथ समय बिताना भी लगभग बंद हो  गया, शुरू में तो रीमा घर आती-जाती रही पर फिर कविता का स्वाभाव देख उसने भी ना मिलना ही बेहतर समझा। विनोद और प्रिया ने कॉलेज ख़त्म होने के बाद शादी कर ली। शादी से कुछ  समय पहले ही रीमा ने विनोद को कविता के दिल की बात बता  थी। शायद कविता का अचानक बदला हुआ रूप विनोद को बहुत परेशान कर रहा था, और एक अच्छे दोस्त के नाते रीमा ने सच बताना ही ठीक समझा।
हालाँकि विनोद ने कविता को शादी में इनवाईट तो किया था पर उसके ना आने पर उसे कोई दुःख भी नहीं हुआ। शायद कविता के आने पर सब कुछ बहुत ऑकवर्ड हो जाता।
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अचानक एक तेज़ आवाज़ सुनकर कविता ने चौंक कर आँखे खोली। देखा तो कमरे में लगी वॉल  क्लॉक सुबह के तीन बजने का इशारा कर रही थी। कविता के  माथे पर पसीने की छोटी छोटी बूंदे थी और दिल तेज़ रफ़्तार से धड़क  रहा था। तीन साल पहले का कड़वा सच, जिसे उसने बड़ी मुश्किल से दबाया था, आज सारे ताले तोड़कर फिर उसके सामने खड़ा था।
कांपते हाथों से कविता ने अपना मोबाइल पकड़ा, और कुछ सोचने के बाद रीमा का नंबर डायल किया। पहली रिंग भी पूरी नहीं हुई थी की रीमा ने झट से फ़ोन उठाते हुए पूछा, "हाँ बोल कविता"

"तू ...तू सोयी नहीं अब तक?" कविता हैरान थी।

रीमा तपाक से बोली, "तू सो पाई क्या? मुझे पता था तेरा फ़ोन आयेगा।" फिर कुछ रुक कर, धीमी आवाज़ में कहा, "बोल न कविता …"

"एड्रेस मिलेगा क्या?" कविता ने उसी गंभीर स्वर में  पूछा।

"हाँ, SMS कर दूँगी। मैं भी चलूँ तेरे साथ?"

"नहीं" कहकर कविता ने फ़ोन काट दिया। आगे कुछ भी बोलकर वो कमज़ोर नहीं पड़ना चाहती थी।

अगली सुबह कविता जल्दी तैयार हो गयी। डाइनिंग टेबल पर अखबार पढ़ते-पढ़ते ही उसने चाय नाश्ता किया और तेज़ कदमों से घर से बाहर निकल गयी। माँ ने हैरानी से उसे जाते देखा, पर टोका नहीं। वैसे भी अब माँ उसकी ज़िन्दगी में कम ही दखलंदाज़ी करती थीं।

कविता की सफ़ेद गाड़ी एक शानदार डुप्लेक्स मकान के आगे रुकी। गाड़ी से उतरकर वो घर के
मेन गेट की तरफ चल दी। गेट के बाहर सुन्दर सफ़ेद मार्बल पर छपा था 'विनोद शर्मा, प्रिया शर्मा'
ना चाहते हुए भी उसकी आँखें नाम हो गयीं, शायद पिछले तीन सालों में पहली बार…

डोरबेल बजाने पर, घर से निकलकर एक बूढा व्यक्ति गेट खोलने आया।
"जी कहिये" आदमी ने पूछा।
"प्रिया है क्या?" कविता धीरे से बोली।
"आप कौन?" आदमी ने पहचानने की कोशिश करते हुए पूछा।

"मैं कौन?" कविता सोच में पड़ गयी। रिश्ते नातों के मकडजाल में फंसे लोगों को क्या समझा पायेगी की वो कौन है। उसने इस सवाल को अनदेखा करते हुए कहा,
"आप उनसे कहिये कविता आई है, वो पहचान जाएँगी।"
"मैडम अभी वकील साहब से कुछ बातें कर रही हैं। आप थोड़ी देर बैठिये, मैं उन्हें बता देता हूँ।" उसने बरामदे में रखी कुर्सी  की तरफ इशारा किया और अन्दर चला गया।

कविता कुर्सी पर बैठते हुए सोचने लगी कि शायद प्रिया  को उसके आने का अंदाजा था, इसीलिए खुद को व्यस्त कर लिया। पर उसके खयाल ज्यादा देर तक टिक ना पाए, जब वही बूढा आदमी कुछ ही देर में वापस आ
गया।
"आईये" वो बोला।
और कविता पीछे चल पड़ी।


घर में कदम रखते ही ऐसा लगा मानो सबकुछ जाना पहचाना हो। हर एक चीज़ उसे विनोद की याद दिला रही थी। वही खुशनुमा रंग, कोने में रखा पुराना ग्रामोफ़ोन, साथ में म्यूजिक सिस्टम, दीवार पे टंगी पुराने सिंगर्स की तसवीरें और हॉल के दूसरे कोने में एक बड़ा सा एक्वेरियम, जिसमे कई तरह की रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं।
"मैं तो अपने घर में एक बहुत बड़ा एक्वेरियम रखूंगा। कितनी खूबसूरत लगती हैं वो छोटी-छोटी मासूम मछलियां जो कभी गुस्सा नहीं करतीं, कोई नखरे नहीं।" विनोद ने एक बार नाराज़ कविता को छेड़ते हुए कहा था। वही आवाज़ फिर कविता के कानों में गूँज उठी। अनायास ही मुस्कुरा पड़ी थी वो।
थोडा आगे बढ़ी तो प्रिया खड़ी थी ...
कॉलेज में कविता ने शायद ही कभी प्रिया के साथ समय बिताया हो। यहाँ तक की विनोद के इंट्रोड्यूस करने से पहले उनकी बात तक नहीं हुई थी। पर पता नहीं क्यों आज प्रिया को देख कविता को लगा जैसे कोई अपना सदियों बाद मिला हो।
एक लम्बी असहज खामोशी के बाद प्रिया धीरे से बोली, "तुम जैसा अच्छा दोस्त खो देने का ग़म विनोद को हमेशा रहा। मुझसे अक्सर कहते थे की मैं तो कविता से कुछ कह नहीं पाऊंगा, पर तुम जब भी मिलो तो मेरी तरफ से माफ़ी ज़रूर मांग लेना। मैंने तय कर लिया था की कुछ भी करके जल्द ही तुम दोनों को मिलवाउंगी, ताकि ..."

दो पल के लिए वो खामोश हो गयी। शायद कविता के सामने वो खुद को बेबस नहीं दिखाना चाहती थी।
फिर खुद को संभालते हुए बोली,
"एक हफ्ते के टूर के बाद परसों रात ही पहुँचने वाले थे विनोद। पर सुबह तक इंतज़ार करने के बाद बस एक फ़ोन ही आया। हाईवे पर उनकी कार और एक ट्रक ..."

बस। इतनी ही हिम्मत दिखा पाई प्रिया। कविता ने बिना कुछ कहे, सोचे उसे गले से लगा लिया…
और कितने पुराने थमे आंसुओं को आज रास्ता मिल गया।

























     

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